वो शायरी के रंग जमाएं
हमरे अंग बिना
तभी तो वो इतने बेरंग
एक ही रंग कब हुआ
नवरंग, या कुछ एक मिल
अधिकाधिक बेढंग
आधे अधूरे ही प्रसंग
वो जानें न काव्य सांस में
जो जोश होश भवितव्यम्
रही बात हमरी
हम भी गणतंत्र के
गणतंत्र में
हमें जानें, हमें पहचानें
यह उनका काम
क्यों हम जा अलख जगाएं
उनके दर पर?
जरूरतमंद वो
जरूरतमंद राष्ट्र
कवि तो अपना कार्य करें
करते जाएँ निष्काम
स्वार्थ निर्लिप्त तपस्वी
वो जानें उनका काम
गणतंत्र में कैसे
गणतंत्रीय कवि पहचानें
या फिर चलते जाएँ
अपनी कव्वा चाल
हंस मस्त अपनी मस्ती में
हाँ, अपनी ही स्वतंत्र हस्ती में
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